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सम्पादकीय

जाम…

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जाम एक ऐसा शब्द है जो आपके निर्धारित कार्यक्रमों को तमाम करने में अहम भूमिका निभाता है। (ghaziabad hindi news, ) ये जाम ही है जो इंसान के महत्तवपूर्ण समय को निगलने का काम कर रहा है। इस जाम की वजह से जिंदगी के अहम पल जाम हो चुके हैं। खासतौर पर गाजियाबाद के जाम के चर्चे तो अब एनसीआर में भी सुर्खिया बटोरने लगे हैं। घर से निकलते वक्त दिमाग में ये ही सवाल आता है कि कहीं जाम में न फंस जायें। हॉट सिटी का आदमी जाम को लेकर इतना अलर्ट हो चुका है कि वह अब घर से निकलने से पहले अपने दोस्तों रिश्तेदारों से उन क्षेत्रों के जिनमें वह रहते हैं अलर्ट ले लेता है कि कहीं वहां पर जाम तो नहीं लगा है। गाजियाबाद में लगने वाला जाम अब बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। इस जाम की वजह से जहां जरूरी वक्त सड़कों पर ही दम तोड़ रहा है, वहीं इसकी वजह से एम्बुलेंस में सवार रोगी अकाल काल के गाल में समा रहे हैं। युवा अपने इंटरव्यूह समय से देने के लिए नहीं पहुंच पा रहे हैं। वहीं करोड़ो का पेट्रोल, डीजल इस जाम की वजह से खप रहा है। जिस हिसाब से गाजियाबाद की आबादी के साथ इसकी संकुचित सड़कों वाहनों की संख्या कई गुना के हिसाब से बढ़ी है, उस लिहाज से ठोस ट्रेफिक मैनेमेंट पुलिस प्रशासन की तरफ से तैयार नहीं हो पाया है। अब समय आ गया है कि सभी राजनैतिक दल, समाजसेवी संस्थाएं, शहर के प्रबुद्ध लोग एकजुट होकर शासन प्रशासन तक इस समस्या प्रमुखता से उठायें। क्योंकि गाजियाबाद का जाम अब कोई छोटी नहीं बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। इस समस्या का समाधान ठोस रणनीति और प्लान से ही निकलेगा। ऐसे में इस समस्या के समाधान को लेकर जितनी देर करेंगे, यह समस्या उतनी ही विकराल होती चली जायेगी। जनता को भी इस समस्या से निपटने के लिए जागरूक होने की जरूरत है। ये भी देखने को आ रहा है कि कार पुलिंग को महत्तव नहीं दे रहे हैं। सड़कों पर चलने वाले वाहनों पर नजर डाले तो अधिकतर चार पहिया वाहन मेें एक चालक गंतव्य की ओर जा रहा है। अगर आपस में सामजस्य कर हर चालक एक साथ चलने का दिन निर्धारित कर ले तो सड़कों से ट्रेफिक का बोझ काफी हद तक कम हो सकता है। जाम का मुख्य कारण टूटी सड़के, अवैध कट, खराब ट्रेफिक सिंग्नल व लचर टेफिक व्यवस्था भी है, और जब तक यह दुरूस्त नहीं होती तब तक जाम लगता ही रहेगा। -धन्यवाद! मनोज गुप्ता

ग़ाजियाबाद

संपादकीय: साल और सफर याद रहेगा

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एक मई कलेंडर की वो तारीख है जिसे मजदूर दिवस के रूप में याद किया जाता है। यह तारीख मजदूर दिवस के रूप में जानी जाती है। लेकिन इस वर्ष जो कुछ हुआ है उसे मजदूर कभी नहीं भूल पाएंगे। एक सफर ऐसा कराया है जिसे तारीख में हमेशा दर्ज किया जाएगा। आखिरकार लॉकडाउन में मई की पहली तारीख आई और अपने साथ एक इतिहास समेटे हुए लाई। मजदूर वर्ग की बात करें तो दिल्ली और इससे सटे एनसीआर इलाके में बिहार से लेकर मध्य प्रदेश के मजदूर रहते हैं। पूर्वांचल से एक बड़ा वर्ग रोजी-रोटी कमाने के लिए दिल्ली, गुड़गाव, नोएडा और गाजियाबाद का रुख करता है। देश में 1947 के विभाजन के बाद पहली बार ऐसी तस्वीर देखने को मिली। लोग महज दो थैलों में पूरी बस्ती का सामान डालकर सैकड़ों किमी का सफर करने को तैयार थे। इस बात का गवाह दिल्ली से सटा गाजियाबाद बना। जहां से लाखों मजदूर पैदल हो लिए। आखिर ऐसा क्या था कि सरकार मजदूरों को यह यकीन दिलाने में फेल हो गई कि उनके रोजगार पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा और सरकार उन्हें लॉकडाउन अवधि में रोटी उपलब्ध करा देगी। अब से पहले कभी ऐसा नहीं हुआ और पहली बार ऐसा हुआ जब देश का मजदूर अपने रोजगार स्थल को छोड़कर पैदल ही 800 से 900 किमी का सफर तय करने निकल पड़ा। मार्च के महीने के अंत में लॉकडाउन हुआ था और अप्रैल का महीना पूरा गुजर गया और अब तक 17 मई तक लॉकडाउन रहना है। सवाल यही है कि जीवन का ये संघर्ष आखिर इस तरह से इस मोड़ पर क्यों आया। गाजियाबाद से एक मजदूर ने अपने दो छोटे बच्चों और पत्नी के साथ पैदल ही गोरखपुर तक का सफर तय कर लिया। ये मजदूर कोई राष्टÑीय खिलाड़ी नहीं थे जो पैदल चाल की किसी प्रतियोगिता में भाग ले रहे थे। इन मजदूरों को किसी ने देश निकाला भी नहीं दिया था, फिर ऐसी क्या वजह रही कि लाखों लोग पैदल ही अपने गांव की ओर चल दिए। ये वर्ष और ये मंजर हिन्दुस्तान के इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया है। इतिहास में यह भी दर्ज हुआ है कि 8 साल के बच्चे ने 800 किमी का सफर पैदल तय किया और इतिहास में यह भी दर्ज हुआ कि सरकार को आगे आकर यह कहना पड़ा कि मजदूरों से किराया ना लिया जाए। लेकिन इसके बाद भी सफर जारी रहा और आज जब लॉकडाउन बढ़ चुका है तब यह एक सोचने का विषय है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में देश की राजधानी से और उसके आसपास के क्षेत्रों से मजदूरों ने रातोंरात पलायन किया। वजह कोई युद्ध नहीं था और ऐसा भी नहीं था कि मजदूर रातोंरात पैदल चलकर महामारी से बच सकते थे। मगर आजादी के बाद यह पहला मंजर था जब एक बड़ी आबादी सैकड़ों किमी का पैदल सफर तय करने पर आमादा थी। अब यह वर्ष और यह सफर मजदूरों को हमेशा याद रहेगा। यह तारीख इतिहास में दर्ज होगी, जब मजदूरों का दिवस आया था और मजदूरों के पास कोई रोजगार नहीं था। यह पहला मजदूर दिवस होगा जब मजदूर बिना मजदूरी के बैठे हैं और सरकार के दिए आटे से अपना और अपने बच्चों का पेट भर रहे हैं।

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ग़ाजियाबाद

हर नागरिक करें पूर्ण सहयोग

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राष्ट के प्रति प्रत्येक नागरिक का एक कर्तव्य होता है। इसी लिए कहा भी जाता है कि जिस धरा पर हमने जन्म लिया है उस धरा की माटी का कर्ज हमें चुकाना चाहिए। हमें बताया भी यही गया है कि देश से बड़ा कुछ नहीं होता। क्योंकि देश होता है तो समाज होता है। देश होता है तो धर्म होता है और देश होता है तो संस्कृति होती है। भारत विविधताओं वाला देश है। आज हमारे देश पर एक बड़ी आपदा आई है। कोरोना महामारी से पूरा विश्व पीड़ित है और ऐसे में एक बड़ी आबादी वाले देश में महामारी का आना बहुत बड़ा संकट है। केंद्र की सरकार और राज्य सरकारें एकजुट होकर इस संकट से जूझ रही हैं। कोरोना के चलते पूरे देश में लॉकडाउन घोषित किया गया है और आर्थिक व सामाजिक गतिविधियां पूरी तरह रुक गई हैं। लॉकडाउन भी जरूरी है और सरकारी मदद भी जरूरी है। सरकार के सामने देश के नागरिकों को बचाने की एक बड़ी चुनौती है। यदि उसने लॉकडाउन का पालन कठोरता से नहीं कराया तो लाखों जिंदगी खतरे में पड़ जाएंगे। वहीं दूसरी तरफ सरकार के सामने बड़ी चुनौती उस वर्ग को भूख से बचाने की है जो रोजाना कमाता और खाता है। फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वाले वर्ग से लेकर रोज रिक्शा चलाकर कमाने वाले वर्ग तक भोजन उपलब्ध कराना केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है बल्कि इस नेक कार्य में देश के सबल और समर्थ नागरिकों को आगे आना चाहिए। मेरे शहर में ऐसा हुआ भी है और यहां पर सामाजिक संस्थाओं से लेकर राजनीतिक दलों के लोगों ने अपनी पूरी सहभागिता निभाई है। खतरा केवल इस बात का नहीं है कि लॉकडाउन से हम कोरोना महामारी से बचेंगे या नहीं। खतरा इस बात का भी है कि लॉकडाउन के बाद भी जब जिंदगी पटरी पर लौटेगी तब भी इसे व्यवस्थित करने के लिए संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। देश के सांसदों से लेकर उद्योगपतियों ने पीएम रिलीफ फंड और सीएम रिलीफ फंड में आर्थिक योगदान दिया है। मेरी अपील समाज के सभी वर्गों से यह है कि हमें आपदा की इस घड़ी में एक साथ मिलकर आगे आना है। हमारे देश को जब हमारे धन की जरूरत है तो हम देश को कमजोर नहीं होने देंगे और पूरा सहयोग करेंगे। हमें लॉकडाउन के पीरियड में पूरा सहयोग करना है। राष्टÑ के प्रति अपने कर्तव्य को निभाने का यही मौका आपको मिला है। वतन की माटी के प्रति कर्ज चुकाने का समय यही मिला है और हमें इस बात का ध्यान रखना है कि अपने आस-पास रह रहे जरूरतमंद की जरूरतों का ध्यान बिना प्रदर्शन के ही पूरा करें। कई बार मदद ऐसे भी की जाती है कि इस हाथ से मदद होती है और उस हाथ को पता नहीं चलता। तो हम देश के खजाने में अपना योगदान एक नागरिक के रूप में सुनिश्चित करें और एक गरीब परिवार के खाने में अपने योगदान को सुनिश्चित करें। हम याद रखें कि आज हमारे देश को हमारी जरूरत पड़ी है और वतन को जरूरत हैं तो हम अपने वतन की आन, बान, शान बनकर पूरी तरह से तन, मन, धन से साथ हैं। मेरी देश के सभी नागरिकों से अपील है कि पीएम रिलीफ फंड और सीएम रिलीफ फंड में अपना पूर्ण सहयोग करें। क्योंकि हमारा यह सहयोग ही हमारे देश के मजबूती देगा और इसी सहयोग से हम अपने देश के लाखों नागरिकों की जिंदगी को सुरक्षित रखने में सफल हो जाएंगे।

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सम्पादकीय

समाजवादी आवाज की गंूज

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सपा के थिंक टैंक कहे जाने वाले प्रोफेसर रामगोपाल यादव की दल में विदाई और वापसी दोनों ही ऐतिहासिक अंदाज में हुई। ऐतिहासिक इस मायने में है कि प्रोफेसर रामगोपाल यादव की गिनती समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक नेताओं में होती है। प्रोफेसर रामगोपाल यादव की सबसे बड़ी खूबी किसी भी मुद्दे पर निष्पक्ष और निर्भीक राय रखना है। रामगोपाल यादव ने बड़ी गलतियों को भी आसानी से माफ कर दिया। जब समाजवादी पार्टी में घमासान मचा था, तब प्रोफेसर रामगोपाल यादव एक मात्र नेता थे, जो पत्र लिखकर बाकायदा अखिलेश के समर्थन में आए थे। इस पत्र की कीमत उन्हें अपने निष्कासन से चुकानी पड़ी। बड़ी सोच और बड़े विजन के धनी प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने इतने बड़े कदम के बाद भी अपना संयम नहीं खोया। सपा को जब बड़े मुद्दे पर बड़े चेहरे की जरूरत थी तो प्रोफेसर रामगोपाल यादव राज्यसभा में नोटबंदी के मुद्दे पर मोर्चा संभालने के लिए आ गए। राज्यसभा में नोटबंदी के मुद्दे पर प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने सपा के नेता के तौर पर चर्चा की। प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने नोटबंदी मामले पर जब अपने विचार रखे तो वह कैप्टन की भूमिका में आ गए और समाजवादी पार्टी के सभी सांसद उनके पीछे खड़े नजर आए। सदन में रेवती रमन सिंह, बेनीप्रसाद वर्मा और अमर सिंह भी बैठे थे। लेकिन मुद्दों पर तर्कों के साथ राज्यसभा में सपा की जो दमदार आवाज गंूजी वह प्रोफेसर रामगोपाल यादव की थी। सपा के ज्यादातर सांसद राज्यसभा में रामगोपाल के इर्द-गिर्द ही रहे। यहां तक की जया बच्चन ने भी प्रोफेसर रामगोपाल यादव की जमकर तारीफ की। यहां से समाजवादी क्रांति का एक नया अध्याय भी शुरू हुआ है। प्रोफेसर रामगोपाल यादव शुरू से अखिलेश को मुख्यमंत्री चेहरा बनाए जाने की वकालत कर रहे हैं। इसमें खास बात यह भी है कि प्रोफेसर ने अपने पुत्र को प्रोजेक्ट नहीं किया, बल्कि समाजवादी पार्टी की खातिर भविष्य की सोच रखते हुए अखिलेश यादव को सीएम चेहरे के रूप में प्रोजेक्ट किया। राज्यसभा में प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने तमाम कड़वाहट के बावजूद जिस तरीके से जिम्मेदार भूमिका निभाई है, उसकी मिसाल राजनीति में बहुत कम देखने को मिलती है। प्रोफेसर रामगोपाल यादव को ऐसे ही थिंक टैंक नहीं कहा जाता। राज्यसभा में उनकी वाणी और कार्यशैली के सभी दल मुरीद हैं। यह समाजवादी आवाज की गंूज है, जो राजनीति के फलक पर छा गई है।

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