गुवाहाटी| असम में नलबाड़ी जिले से 20 किलोमीटर दूर स्थित चतरा गांव की पहचान को यहां की महिलाओं ने अपनी एकजुटता और मेहनत से बदल दिया है। बोडो समुदाय बहुल यह गांव कुछ साल पहले तक शराब के धंधे के लिए जाना जाता था। अब यही अपने शानदार कपड़ों की बुनाई के लिए पहचाना जाने लगा है। नलबाड़ी से 20 किलोमीटर दूर चतरा गांव की महिलाओं को ग्राम विकास मंच नाम की एक स्वयंसेवी संस्था का साथ मिला तो उन्होंने कामयाबी की नई इबारत लिख डाली। गांव की महिलाओं को संस्था ने बुनाई और सिलाई के आधुनिक तौर तरीकों के बारे में प्रशिक्षण दिया।
इसके बाद इन महिलाओं ने न सिर्फ हैंडलूम से कपड़े बनाने का काम शुरू किया बल्कि अपने उत्पाद के लिए भूटान देश के रूप में एक बेहतरीन बाजार की भी तलाश कर ली।
1990 के दशक में नलबाड़ी जिले के लोगों ने काफी तकलीफ सही थी। बोडो विद्रोहियों के खिलाफ यहां सेना ने कई कार्रवाई की थी। इस वजह से इसके विकास पर काफी असर पड़ा था।
लेकिन, वक्त के साथ ही यहां की महिलाओं ने गांव की पहचान बदलने के लिए नई पहल शुरू की। इन्हीं महिलाओं में से एक का नाम पदमा बारो है। उन्होंने देसी शराब बनाने और बेचने के धंधे में लगी महिलाओं को हैंडलूम के काम में लगाने की अगुआई की। देखते ही देखते उनके साथ 30 अन्य महिलाएं आ गईं। इनमें ज्यादातर अविवाहित लड़कियां और विधवा महिलाएं थीं।
नार्थईर्स्टन डेवलपमेंट फाइनेंस लिमिटेड (एनईडीएफआई) ने इन महिलाओं को नलबाड़ी इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट में हैंडलूम से संबंधित प्रशिक्षण दिलवाया। इसके बाद इन्हें कोकराझार ले जाया गया और उन्हीं की समुदाय की उन महिलाओं से मिलवाया गया जो बुनाई के काम में लगी हैं। इन महिलाओं से चतरा की महिलाओं ने बाजार की जरूरतों के बारे में जानकारी हासिल की।
एनईडीएफआई ने हैंडलूम काम को प्रोत्साहन देने के लिए एक शेड का भी गांव में निर्माण करवा दिया। दो लूम महिलाओं ने खुद से जुटाए, आठ का इंतजाम एनईडीएफआई ने किया। सहयोग के इन कदमों ने इन महिलाओं की नई यात्रा की शुरुआत करा दी।
ये महिलाएं मेखेला चादर (महिलाओं के परंपरागत परिधान बनाने में काम आने वाला कपड़ा), गमछा (तौलिया), दोखोना (बोडो महिलाओं के परंपरागत परिधान बनाने में काम आने वाला कपड़ा) और भूटान के परंपरागत परिधान संबंधी कपड़ा बनाती हैं। बीते साल इन्होंने 80000 रुपये का मुनाफा कमाया था। इस साल इसके और बढ़ने की उम्मीद है।
पदमा ने आईएएनएस को बताया कि गांव में इस परिवर्तन की शुरुआत काफी मुश्किल थी। यहां पर शराब से महिलाओं को अच्छी आय हो रही थी। ज्यादातर महिलाएं चावल से बनने वाली शराब, जिसे स्थानीय भाषा में ‘लाओपानी’ के नाम से जाना जाता है, तैयार करती थीं। उन्हें अच्छी आय होती थी।
पदमा ने कहा, “लेकिन, इस काम से गांव का नाम खराब होता था। महिलाओं को अपने परिवार के लिए समय नहीं मिल पाता था। वे बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाती थीं। शराब खरीदने आने वाले अभद्रता करते थे। लेकिन बुनाई का काम शुरू होने और इसके लिए बाजार मिलने के बाद इन महिलाओं में आत्मविश्वास आ गया।”
गांव की महिलाएं अब आय भी अर्जित कर रही हैं और सम्मानित जीवन भी जी रही हैं।
You must be logged in to post a comment Login