गाजियाबाद (करंट क्राइम ) – शिक्षा एक ऐसा अस्त्र हे जो आपको सबसे अलग और विशिष्ट बनाता है शिक्षा के लिए जीवन में दो लोग आपके व्यक्तित्व के निर्माता होते हैं। जीवन में किसी भी व्यक्ति का पहला गुरू उसकी मां होती है और दूसरा गुरू वह होते हैं जो स्कूल, कॉलेज में अक्षर ज्ञान के जरिए उसे साक्षर बनाते हैं । मां एक ऐसा गुरू होती है जो संस्कारों से अपनी संतान के व्यक्तित्व का निर्माण करती है। ये संस्कार जीवनभर व्यक्ति के व्यक्तित्व का हिस्सा बनते हैं। संस्कार क्या होते हैं और गुरू को परमेश्वर की उपाधि क्यों दी गई है। यह साक्षात दिखाया उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर ने। अनिल राजभर प्रगति मैदान में लगे पुस्तक मेले में गये थे। यहां जब उनके गुरू सेवानिवृत्त प्रवक्ता डॉ संत कुमार त्रिपाठी के दर्शन उन्हें हुए तो साक्षात गुरू शिष्य परम्परा जिंदा हो गई।
कैबिनेट मंत्री अनिल राजभर ने अपने गुरू डॉ संत कुमार त्रिपाठी को देखते ही भरे मैदान में सबके सामने अपने जूते उतारे और फिर अपने गुरू के चरणों में अपना सर रख दिया। साष्टांग आशय कर हुए कक करते हुए जब अनिल राजभर ने अपने गुरू के चरणों में सिर रखा तो गुरू ने भी आशीर्वाद के रूप में अपने दोनों हाथ अपने शिष्य अनिल राजभर के सर पर रख दिये। गुरू शिष्य मिलन की यह बेला देखकर हर कोई भाव विहल हो गया। गुरू ने अपने शिष्य को गले लगावा और उसका माथा चूम लिया। इस दौरान शिष्व से मिले इस सम्मान से गुरू इतने अभिभूत हो गये कि अपने आंसू नहीं रोक पाये और शिष्य अनिल राजभर की भी आंखे छलक आयवीं। ये वो क्षण जब अनिल राजभर ने एक नजीर पेश की और दिखाया कि सरकार में वजीर होने के बाद भी वो अपने संस्कारों को नहीं भूले हैं।
आज के युग में जब छात्र अपने शिक्षक को किसी सार्वजनिक स्थानपर देखकर अभिवादन करने के बजाय मुँह मोड लेते हैं तब अनिल राजभर एक मिसाल हें कि अपने रिटायर शिक्षक को देखकर उन्होंने सार्वजनिक स्थान पर सबके सामने अपने संस्कारों का परिचय दिया और ये दिखाया कि भारतीय संस्कृति में गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णुर गुरु देवो महेश्वरः, गुरु: साक्षात परम ब्रह्म तस्मै श्री-गुरवे नमः का दर्जा क्यों दिया गया है। अपने शिक्षक का सम्मान करके अनिल राजभर ने आज के युवाओं के सामने यह उदाहरण दिया है कि शिक्षक को ऐसे ही देश का निर्माता नहीं कहा गया है। परिवार को ऐसे ही प्रथम पाठशाला नहीं कहा गया है और मां को ऐसे ही प्रथम देवता और संस्कारों की जननी का दर्जा नहीं मिला है। परिवार से संस्कार विरासत में मिलते हैं और शिक्षक एक कुम्हार की भांति सारे खोट दूर करता है। तभी तो कहा गया है कि गुरू कुम्हार शिष्य कुंभ है, भीतर हाथ सहार के बाहर मारे चोट।
गुरू शिष्य परम्परा का एक पवित्र नजारा प्रगति मैदान पर पुस्तक विमोचन के दौरान देखने को मिला। ये एक मौका पुस्तक विमोचन का था।