भगवद गीता के अध्याय 16 में मानव की दृष्टि के तीन प्रकार का वर्णन किया गया है: दैवी, आसुरी, और मनुष्यी। इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण मानव के धर्म, अधर्म, और सामाजिक आचरण के विविध पहलुओं को समझाते हैं।
दैवी स्वभाव: इसमें सत्य, अहिंसा, शांति, ध्यान, दान, त्याग, आत्मसमर्पण, और धर्म के प्रति समर्पण की भावना होती है। यह व्यक्ति दिव्य गुणों से युक्त होता है और सामाजिक रूप से उत्तम होता है।
आसुरी स्वभाव: इसमें अहंकार, अभिमान, क्रोध, अधर्म, हिंसा, अनृत, लोभ, मोह, और अविद्या की भावना होती है। यह व्यक्ति अधम गुणों से युक्त होता है और सामाजिक रूप से हानिकारक होता है।
मनुष्यी स्वभाव: इसमें व्यक्ति की सामान्य मानवता होती है, जिसमें सत्य, अहिंसा, ध्यान, और धर्म की भावना होती है, लेकिन यह स्वभाव समय-समय पर दैवी या आसुरी दिशा में परिवर्तित हो सकता है।
इस अध्याय में भगवान का कहना है कि जो व्यक्ति दैवी स्वभाव को अपनाता है, वह सुखी और शांति पूर्ण जीवन जीता है, जबकि जो व्यक्ति आसुरी स्वभाव को अपनाता है, वह अधोगति को प्राप्त होता है। यह अध्याय मनुष्य को सच्चे धर्म का पालन करने की महत्वपूर्णता को समझाता है और उसे आत्मसमर्पण और सच्चे आचरण में स्थिर रहने की सलाह देता है।
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