गीता प्रेस की वेबसाइट पर नजर डालें तो इस संस्था का मुख्य उद्देश्य सनातन धर्म के मूल्यों का आम लोगों तक प्रचार-प्रसार करना है। गीता प्रेस को हाल ही में 2021 का ‘गांधी शांति पुरस्कार’ देने की घोषणा की गई है। गीता प्रेस को यह पुरस्कार अहिंसक और दूसरे गांधीवादी तरीकों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में योगदान के लिए दिया जाएगा।
गीता प्रेस की शुरुआत
गीता प्रेस की शुरुआत बंगाल के बंकुरा के रहने वाले जयदयाल गोयनका ने की थी। जाति से मारवाड़ी और काम से व्यापरी। वे कॉटन, मिट्टी तेल, कपड़ा और बर्तनों के कारोबार से जुड़े थे। बिहार से लेकर झारखंड तक उनकी पहचान एक ईमानदार व्यापारी के रूप में होती थी। इन शहरों में काम के सिलसिले में जयदयाल जाते और काम खत्म होने पर मंडली बनाकर सत्संग करते थे। सत्संग में गीता का पाठ होगा और उसी पर वे चर्चा करते थे। कोलकाता में सत्संग के दौरान इतनी भीड़ इकट्ठी होने लगी कि जयदयाल का घर बहुत छोटा पड़ने लगा। इसके बाद पूरे ग्रुप ने मिलकर 1922 में कोलकाता में ही बंसतल्ला रोड पर एक जगह किराए पर ली। जिसका नाम ‘गोविंद भवन’ रखा गया। गोविंद भवन ही जयदयाल का घर बन गया। वो वहीं रहने लगे। काम से धीरे-धीरे उनका मोह खत्म होने लगा और गीता पर चर्चा के लिए समूह बनाने में मोह का दूसरा सिरा जुड़ने लगा। वो खुद गीता की व्याख्या करने में महारत हासिल कर चुके थे।
600 रुपए की लगाई प्रिंटिंग मशीन
धीरे-धीरे जयदयाल गोयनका को यह महसूस होने लगा कि गीता का सही ट्रांसलेशन बाजार में नहीं है। जयदयाल ने यह बात सत्संग में अपने साथियों के सामने रखी। सत्संग में गोरखपुर के बिजनेसमैन घनश्याम दास जालान और हनुमान प्रसाद पोद्दार भी मौजूद थे। घनश्याम दास ने कहा कि अगर गोरखपुर में प्रेस लगाई जाए तो मैं उसे संभाल लूंगा। इसके बाद 3 मई 1923 को उर्दू बाजार में 10 रुपये महीने किराए पर कमरा लेकर प्रेस की शुरूआत की गई। इसके लिए 600 रुपए का एक हैंड प्रेस खरीदा गया। 3 साल बाद 1926 में 10 हजार रुपये में साहिबगंज के पीछे एक मकान खरीदा गया। जो आज भी गीताप्रेस का मुख्यालय है। आज यह जगह 2 लाख वर्ग फीट में फैला है। परिसर में 1 लाख 45 हजार वर्ग फीट में प्रेस और बाकी जगह में मकान और दुकानें हैं।
जब बंद हो गई थी गीता प्रेस
बात दिसंबर 2014 की है, जब गीता प्रेस के कर्मचारी धरने पर बैठ गए थे। कर्मचारियों का यह धरना सैलरी को लेकर था। इसके बाद सख्त कार्रवाई करते हुए गीता प्रेस ने तीन कर्मचारियों को निकाल दिया था।
बाद में कर्मचारी संगठन और गीता प्रेस के ट्रस्टीज के बीच हुई बैठक में इस मसले को सुलझा लिया गया था। गीता प्रेस ने उन तीनों कर्मचारियों को भी वापस काम पर रख लिया था।
गीता प्रेस के इतिहास में यह पहली बार था जब यह करीब तीन हफ्तों तक हड़ताल के चलते बंद रही थी। कर्मचारियों की मांगें मानने के बाद गीता प्रेस में फिर से काम शुरू हो पाया था।
कल्याण मैगजीन ने गीता प्रेस को किया चर्चित
बात 1926 की है, जब दिल्ली में आॅल इंडिया मारवाड़ी अग्रवाल महासभा का आयोजन हो रहा था। सभा में समुदाय के बड़े-बड़े लोग इकट्ठा हुए थे। इसमें उद्योगपति घनश्याम दास बिरला और जमनालाल बजाज जैसे लोग भी मौजूद थे। बताया जाता है कि यह दोनों उद्योगपति उन दिनों महात्मा गांधी के विचारों से काफी प्रभावित थे। सभा में हिंदू धर्म की कुरीतियों को लेकर चर्चा होने लगी। पक्ष-विपक्ष में तर्क दिए जाने लगे। जमनालाल बजाज ने जहां बाल विवाह और पर्दा प्रथा को खत्म करने की बात कही, तो वहीं उनके सेक्रेटरी खेमका ने हिंदुओं की परंपराओं को बचाए रखने पर जोर दिया। कुछ दिनों बाद ये बात सामने आई कि खेमका का भाषण हनुमान प्रसाद पोद्दार ने लिखा था। पोद्दार ने सभा में चर्चा हुए मुद्दों को लेकर कल्याण पत्रिका निकालनी शुरू की। इस तरह 1926 से अब तक यह पत्रिका निकलती है।
आपसी बैर बना गीता प्रेस उत्थान की वजह
19वीं सदी के अंत और 20 सदी की शुरूआत में हिंदुओं की भाषा के रूप में हिंदी भाषा का प्रचलन था। इस समय अखबार से लेकर जर्नल और लोगों की भाषा के रूप में हिंदी बढ़ रही थी। गीता प्रेस और कल्याण मैगजीन मारवाड़ी समुदाय के साथ हिंदुओं के लिए एक नया विचार दे रहे थे। इनकी छपाई में मुनाफे का कोई रोल नहीं था। सनातन संस्कृति को बचाने के उद्देश्य से इनकी छपाई की जा रही थी। 20वीं सदी की शुरूआत से ही देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच दरार पड़ने लगी थीं। आजादी की लड़ाई के साथ दो समुदायों के बीच एक समानांतर लड़ाई शुरू हो गई थी। देश में दंगे हो रहे थे। तब के संयुक्त प्रांत और बिहार जैसे हिंदी भाषी राज्यों में गौ हत्या का मुद्दा जोर पकड़ने लगा था। कांग्रेस से अलग मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, के एम मुंशी और सेठ गोविंद दास जैसे लोग गीता प्रेस को सपोर्ट कर रहे थे।
गीता प्रेस कैसे बेचता है सस्ती किताबें
गीता प्रेस से छपने वाली किताब की शुरुआती कीमत सिर्फ 2 रुपये है। प्रेस की बाकी किताबें भी दूसरे पब्लिकेशन के मुकाबले सस्ती होती हैं। ऐसे में, सवाल उठना लाजमी है कि आखिर यह कैसे मुमकिन हो पाता है? तो इसका जवाब है रॉ मटेरियल। गीता प्रेस अपनी किताबें छापने के लिए रॉ मटेरियल सीधे खरीदता है। इससे इंफ्रास्ट्रक्चर और उसे लाने में लगने वाला किराया जैसे बड़े खर्च बच जाते हैं। इसके अलावा गीता प्रेस, गीता वस्त्र विभाग और गीता आयुर्वेद विभाग के जरिए कपड़े और दवाइयां बेचता है।