गाजियाबाद (करंट क्राइम)। मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ कि लूट के लिए केवल अधिकारी जिम्मेदार है। जब तक लोग रिश्वत देकर उचित अनुचित काम कराने वाले हैं और रिश्वत लेने वालों को संरक्षण देने वाले राजनेता मौजूद हैं तब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात करना पाखंड है। एक उक्ति है जब तक लालची जिंदा हैं तब तक ठग भूखे नहीं मर सकते। ऐसे ही जब तक आम लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध ये निश्चय नहीं कर लेंगे कि चाहे कितनी भी कठिनाई उठाएंगे लेकिन रिश्वत नहीं देंगे तब तक भ्रष्टाचार के विरुद्ध निर्णायक लड़ाई प्रारम्भ भी नहीं हो सकती है। रही बात सत्ता की तो सत्ता की तो चाबी ही भ्रष्टाचार की तिजोरी में ही बन्द है।
वर्तमान समय में एक आम आदमी का चुनाव जीतना तो असम्भव है ही, लड़ना भी सम्भव नहीं है। जब गांव प्रधानी के चुनाव में ही 30 -30, 40 -40 लाख रुपये खर्च हो रहे हैं, ब्लाक प्रमुख और जिला पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव 5-5 करोड़ रुपये में लड़ा जा रहा है ,जब जनप्रतिनिधि भी अपने प्रत्याशी के समर्थन के लिए धन ले रहे हैं, तब भष्टाचार के विरुद्ध कौन लड़ाई लड़ेगा? भष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई बड़ी कठिन है क्योंकि जब ये धारणा प्रबल हो कि रिश्वत लेकर काम करो और अगर पकड़े जाओ तो रिश्वत देकर छूट जाओ , तब कौन दुस्साहस करेगा भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने का? मतदाताओं को सीधे नकद पैसे बांटकर चुनाव जीतने वाले जनप्रतिनिधि में कहाँ सहस है जो वह भ्रष्टाचारी का गिरेवान पकड़ कर कह सके कि अब ये नहीं चलेगा!!! इसलिए भ्रष्टाचार तब तक चलेगा जब तक पैसे की राजनीति चलेगी। लखनऊ सचिवालय में लगी लिफ्ट का लिफ्टमैन भी बता देता है कि अमुक व्यक्ति से काम कराने का क्या तरीका है?
सूचना का अधिकार , आॅनलाइन आवेदन जैसे भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के प्रयासों का कुछ तो प्रभाव हुआ है लेकिन शासन की व्यवस्था का विस्तार क्षेत्र इतना व्यापक है कि ऐसे सारे प्रयास ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हो जाते हैं। जिला ,तहसील, ब्लाक और गांव स्तर तक फैली शासन व्यवस्था से जुड़े सभी लोगों की निगरानी करना बड़ा कठिन है।हाँ अगर जिले स्तर का कोई अधिकारी जो अपने आप को ईमानदार होने का दावा करता है ,अगर वह घोषणा करे कि अगर कोई सरकारी अधिकारी कर्मचारी रिश्वत मांगता है तो मेरे पास आओ । मैं बिना रिश्वत के उसका काम कराकर दूंगा तब तो जरूर फर्क पड़ेगा। लेकिन समस्या ये है कि कुछ की ईमानदारी तो केवल पाखंड है और कुछ ईमानदारी को केवल व्यक्तिगत उपलब्धि मानकर उसे अपने आनन्द का कारण बना लेते हैं।
लेकिन बात फिर वहीं पहुंच जाती है कि जबतक राजनीति भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हो जाती तबतक अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना सम्भव नहीं है।जब चुनावों में विरोधी मतों में बटवारा कराने के लिए प्रत्याशी लड़ाने के लिए एक एक करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हों ,जब दलीय कार्यकतार्ओं में त्याग ,नीति सिद्धान्त और दलीय आस्था के स्थान पर लालच ,स्वार्थ और व्यक्तिगत आस्था को बढ़ावा मिलेगा तो कैसे सिद्धान्तवादी राजनीति को बल मिलेगा ? जब तक सिद्धांतों की राजनीति नहीं होगी। नीतियों और आदर्शों के लिए राजनीति नहीं होगी तबतक राजनीति में धनबल का महत्व बढ़ता रहेगा। धनबल की बैसाखी पर खड़ी सत्ता कभी भ्रष्टाचार पर चोट नहीं कर सकती।कठिनाई ये है कि राजनीति में श्री राम के स्थान पर श्री कृष्ण के रास्तों पर चलकर विजय श्री की बात कही जाती है। चाणक्य नीति से ही विजय का मार्ग प्रशस्त करने को प्राथमिकता दी जाती है। सठे साठयम समाचरेत! दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार ही वास्तविक समाधन दिखता है। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्रों के बीच विजय के गीत गाने के लिए ही साम दाम दण्ड भेद जैसे सिद्धान्त प्रतिपादित हुए हैं।
राजनीति की इन विवशताओं के कारण भ्रष्टाचार को जस्टिफाई नहीं कर रहा हूँ। लेकिन बिना राजनैतिक इच्छा शक्ति के भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता है। जब तक ईमानदार राजनेता भी अपने प्रिय अफसरों को मलाईदार पोस्टिंग दिलाते रहेंगे तबतक भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात करना बेमानी होगी। जब तक राजनेता अगला चुनाव लड़ने के लिए धन की व्यवस्था के लिए प्रयासरत
रहेंगे तब तक भ्रष्टाचार हटाने की बात बेमानी है।
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